Tuesday, 9 November 2021

इस साल छठ में मैं घर आ गया

 

बाज़ार लग जाने के समय से थोड़ा पहले

और इस साल छठ में मैं घर आ गया.......

ये कहानी सिर्फ किसी ऐसे इंसान की नहीं है जो अपने घर से दूर किसी नौकरी पेशा अथवा सेवा में रहता है और छठ महापर्व के अवसर पर अपने घर आया है। बल्कि ये हर उस इंसान के बारे में है जिसके घर छठ नहीं हो रहा है।

परसो नहाय खाय था। वैसे ये बात तो मुझे बहुत दिनों से याद है, लेकिन परसो उसी समय भूल गया जब सबसे ज्यादा मुझे याद रहनी चाहिए थी। गेहूं की बोरी लेकर जब मिल में पहुंचा तो मिल वाले ने पूछ लिया:- "अमनिया ह नू? काहे कि चक्की धो देले बानी" और उसके इस सवाल पर मैं कुछ बोलकर जवाब नहीं दे पाया, बस ना में सिर हिला दिया। भारी मन से अपनी गेहूं की बोरी उठाई, और इस साल छठ में मैं घर आ गया

परसो मैं छठ घाट की तरफ गया। सूर्य मंदिर प्रांगण में एक particular जगह है जहां हर साल हमारा घाट हुआ करता है। लगातार 5 साल हम उस एक ही जगह पर घाट की सफाई करके पूजा करते आए हैं। परसो भी मैंने वो छठ घाट साफ किया हुआ (घास पतवार छिला हुआ) देखा। पर इस बार वो घाट मैंने नहीं छिला है, जैसा कि मैं करते आया करता था। और जब मैंने उस घाट को साफ किया हुआ देखा तो मेरी हिम्मत नहीं हुई जाकर देख लूं किसका नाम लिखा है उस घाट पर। मन में ये नहीं आया कि कोई बात नहीं, मैं इस बार कहीं और घाट बना लूंगा। बस, आँखें भींगने भींगने को हो गई, मन में ये खयाल आते ही कि इस बार मेरे यहां छठ नहीं होगा। और फिर, मैंने उस घाट की तरफ से अपनी नजर ऐसे फेर ली, जैसे वो वहां है भी नहीं। और इस तरह इस साल छठ में मैं घर आ गया

कल खरना था। हां, इस बार कुछ नहीं भुला। बाजार पर एक काम था। और काम भी ऐसा था जिसको टाल नहीं सकते थे। तो कुछ दिनों से मेरी पैदल जाने की आदत बनी हुई है। मैं Bike ले जाना पसंद नहीं करता, जब मुझे अकेले जाना हो तो। कई बार अपना संतुलन खो चुका हूं अकेले bike चलाते हुए। तो, रास्ते साफ थे और मैं चले जा रहा था। पता था कि कल इन्हीं रास्तों पर चुने या अबीर (गुलाल) से स्वागत note लिखा जायेगा, और लोग रंगोली बनाना सीखेंगे, घाट की तरफ इशारा करते हुए तीर के निशान और दोनों तरफ Lining, एक बॉर्डर की तरह बनाई जाएंगी। क्योंकि कल इन्हीं रास्तों पर पैदल और नंगे पैर चलकर जाने कितने व्रती और श्रद्धालु अपने अपने घाट और घाट से अपने अपने घर को जायेंगे।

बाज़ार इधर से जाते समय कम घना था लोगों से। समय सुबह के करीब 11 बज रहे थे। मैं आगे बढ़ा तो बनास नदी बड़ी पुल पर ईख दिखा। उसकी तस्वीर ली मैंने। तस्वीर लेने के पीछे कारण ये था कि पिछले साल मेरे एक बहुत ही अजीज दोस्त ने ईख की उपलब्धता के बारे में पूछा था, और मैं बता नहीं पाया था। जिस कारण जब वो आया अपने गांव से ईख लेकर बेचने के लिए, तो उतनी बिक्री नहीं हुई। लेकिन फिर मुझे याद आया कि वो दोस्त तो इस बार गांव आया ही नहीं है।

मैं आगे बढ़ा और अपना काम पूरा किया, जिसके लिए मैं बाजार गया था। पर वापसी में बाजार में इतनी घनी भीड़ थी, कि पैदल चलने के लिए भी इस बात का इंतजार करना पड़ रहा था कि आगे वाला पैदल व्यक्ति आगे बढ़ेगा तो हम भी बढ़ेगे।

बाजार की तस्वीर आप सबको पता है। सड़क के दोनों तरफ दुकानें, एक दूसरे से सटी हुई। सभी दुकानों की शकल बिलकुल एक जैसी। आगे दोनों तरफ ईख, ऊपर झूलते हुए माटी फल और गागल, नीचे नारियल, गागल, कोहड़ा, बगल में एक तरफ तीन किस्म और तीन अलग अलग भाव वाले सेब, एक तरफ अमरूद और दूसरे फल, सबसे पीछे फलों की पेटियों से निकलने वाले कागज और कचरे, और उन्हीं के बगल में केले के घवद, बीच में बैठा होगा बिक्रेता, जिसके आगे होंगे छोटे छोटे और सूखे फल, जैसे हल्दी, अदरक, बादाम, पंचमेवा, आर्ता, और फिर अगरबत्तियां, वगैरह। दुकानें बड़ी या छोटी हो सकती हैं, उसपर काम करने वाले कर्मी भी 4 या उससे अधिक हो सकते हैं, ये ध्यान रखने के लिए कि कोई मुफ्त में ही उठाकर चल न दे।

भीड़ को देखा मैंने। पर कल भीड़ को देखकर मुझे अपने बिहारी होने पर उतना गर्व नहीं हो रहा था। क्योंकि कल मैं उस भीड़ को देखकर प्रसन्न होने वालों में नहीं था। कल मैं उस भीड़ से खुद को बचते बचाते निकाल पाने की कोशिश कर रहा था। कल मैं खुद को उस भीड़ का हिस्सा भी नहीं बनाना चाहता था। कल मैं देख रहा था कि लोग खरीददारी कर रहे हैं। लेकिन कल मैं किसी प्रकार का मोल भाव या Bargaining नहीं कर रहा था। कल मेरे हाथ में बोरा या झोला नहीं था, जिसमें फलों को खरीद कर आराम से घर ले जा सकता था मैं। कल फलों के सस्ते होने से ज़्यादा उनके अच्छे होने जैसी कोई प्राथमिकता वाली बात नहीं थी। कल मेरे मन में हाथ में आरता और रूई, पान पत्ता और सुपारी, मोमबत्ती और अगरबत्तियां, मिट्टी के दिए आदि बेचने वाले छोटे छोटे बच्चों के प्रति कोई विशेष सहानुभूति नहीं थी। मेरा मन भारी था, मेरे कदम भारी हो रहे थे, मेरे आंख नम होने वाले थे, मेरा गला रूंधने वाला था, सिर्फ ये सोचकर कि इस बार मेरे यहां छठ नहीं हो रहा है। और फिर बिना किसी से कुछ कहे, बिना कोई मोल भाव किए, बिना कुछ खरीदे इस साल छठ में मैं घर आ गया

कल खरना था। सुबह जब मैं टहलने निकला तो एक जन दूध खरीद रहे थे, Dairy में दूध पहुंचाने जाने वाले से। कम से कम चार लीटर खरीदा ही होगा। मुझे याद आया, आज खरना है, आज खीर बनेगी, गुड़ वाली, और पीतल या मिट्टी के बर्तन में बनेगी। किसी भी बिहारी से पूछ लेना, खरना के खीर का स्वाद कैसा होता है, और मैं लिख के देता हूं, वो तुम्हें बता नहीं पाएगा। और मैं आपको ये भी लिख कर देता हूं, जब आप हमारे यहां आकर वो खीर खायेंगे, आप भी नहीं बता पाएंगे।

शाम को व्रती लोग सूर्य मंदिर प्रांगण के पोखरा में स्नान करके वापस आ रही थी, छठ के पारंपरिक गीतों को गाते हुए, दो या अधिक के समूह में। उन पारंपरिक गीतों में उनके स्वजनों के नाम शामिल थे। और स्वजनों के नाम भी एक श्रृंखला में होते हैं, उम्र के हिसाब से। हमारे घर जब छठ होता है तो हम अपने आपने नामों का इंतजार करते हैं। आज भी छठ के गीत में अपना नाम सुनने पर हमें वो बचपन वाली ही feeling आती है।

शाम को गांव की गलियों में निकला। गीतें अब भी गुनगुनाई जा रही थी। लोग जिनके यहां खरना की विधि पूरी हो चुकी थी, वो लोग अपने घरों से बर्तनों में प्रसाद के रूप में खीर लेकर मुहल्ले में बांटने को निकल चुके थे। इस बार तो हमारे गांव के मुखिया प्रत्यासी श्रीमती मनीषा देवी जी के सौजन्य से पंचायत भर में बिजली के खंभों पर Light की व्यवस्था कर दी गई है, लेकिन लोगों के हाथों में टॉर्च था फिर भी, उस स्थिति से निपटने के लिए जब बिजली चली जाए। किसी किसी के दरवाजे पर लोग आने जाने वालों को रोककर प्रसाद खिला रहे थे। मुझे याद आया, ये सब काम मैंने भी किया है। मैं भी जब तक अपने और अपने चारो तरफ के 4 मुहल्लों के सभी घरों के दरवाजे पर दस्तक देकर प्रसाद नहीं बांट देता था, तब तक घर वापस आकर चैन से नहीं बैठता था। एक पीतल की बाल्टी है हमारे पास, करीब 8-10 लीटर की। उस बाल्टी में भर भर कर दो बाल्टियां हम प्रसाद के रूप में बांट आते थे।

ये सारी बातें याद आने लगी तो मन फिर से भर आया, और फिर उन गलियों से, जिनमें कभी हम भी रात को एक टॉर्च के सहारे दो लोग घुमा करते थे, इस साल छठ में मैं घर आ गया

आज छठ का तीसरा दिन है, प्रथम अर्घ्य या फिर संध्या अर्घ्य का दिन। सुबह से ही सोच रहा हूं, कहां घूमने जाऊं। अपने गांव का सूर्य मंदिर है, छठ के लिए इतना बड़ा मैदान है, अर्घ्य के लिए पोखरा है, सुविधा के लिए कृत्रिम झरना भी है। और फिर परसो तो पोखरा की चारो तरफ से सफाई भी हो चुकी है। वरना तीन तरफ से तो इतनी सारी झाड़ियां थी कि 3 साल से सिर्फ उसके सफाई के बारे में विचार ही किया जा रहा था। माननीय सांसद और केंद्रीय नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री राजकुमार सिंह जी ने अपने क्षेत्र के सभी छठ घाटों पर सफाई और बिजली के लिए रुपए भी दिए हैं, जो सारी व्यवस्थाएं छठ पूजा समिति के सहयोग से पूरी होनी है। हर साल इतना अपार जन समूह हमारे गांव बालबाँध आता है व्रत करने, और छठ पूजा के अद्भुत, विहंगम दृश्य का साक्षी बनने। मैं खुद हर साल सबको आग्रह करता हूं, अपने गांव का छठ पूजा समारोह देखने के लिए। ऐसे में मेरा कहीं और जाना ठीक है या नहीं ये असमंजस अभी तक बना हुआ है। लोगों की भीड़ इकट्ठी होनी शुरू हो चुकी है। दुकानें लगनी शुरू हो चुकी हैं। वो सभी छठ घाट जो अभी दो घंटे पहले एकदम खाली थी, अब धीरे धीरे लोगों से भरने लगी है। सड़को पर अलग अलग स्वरों में अलग अलग गीत सुनाई पड़ने लगी है। और उन गीतों से तेज ध्वनि में गाड़ी वालों की Horn, जो आगे निकल जाना चाहते हैं। जल्दी उन्हें भी है, जिन्होंने अपने घर के किसी ऐसे सदस्य को ले जा रहे हैं, जो उतना लंबा सफर पैदल चलने में समर्थ नहीं है।

सूर्य मंदिर के छत पर लगी speaker में सबकुछ सुनाई पड़ रहा है, छठ के मधुर गीत भी, और उन्हीं गीतों को बीच में रोक कर किसी दान अथवा जरूरत की Announcement भी। तरपाल फैला कर लोग बैठ चुके हैं। अंधेरा हो चुका है। बत्तियां जल रही हैं। हालांकि अंधेरा इतना भी ज्यादा नहीं हुआ है कि सड़क पर बिना बत्ती के कुछ दिखे ना। लेकिन इतना जरूर हो गया है कि मंच के सामने लगे समियाना में बैठे लोगों को कोई भी चीज आसानी से देख पाना संभव नहीं है।

मैं अभी भी खुद को शून्य में समझ रहा हूं। ये वो छठ घाट है, जहां जब हमारा छठ होता है तो मुझे फुरसत नहीं होती किसी से बात करने की। घर से तारपाल ले जाओ, फिर ईख, फिर दउरा, और फिर एक एक सदस्य को, जो चल कर घाट तक जाने में असमर्थ हैं। और जैसे ही सबलोग घाट पर पहुंचते हैं, अर्घ्य दिलवाने जाना पड़ता है। अर्घ्य दिलवाने के लिए पहले तो व्रती लोगों के लिए पानी में उतरने और खड़े रहने की जगह तय करना, फिर घाट से जाकर फलों से लदा/सजा हुआ एक एक कलसुप लेकर बारी बारी से व्रती के हाथ में रखना, फिर उसे लेकर व्रती के पांच फेरे पूरे होने की प्रतीक्षा करना। और इन सभी पांच फेरों के दौरान पांच बार भगवान के नाम से जल अर्पित कर अर्घ्य पूरा करवाना, फिर एक कलसुप के पांच फेरे पूरे हो जाने पर दूसरा कलसुप, फिर तीसरा... ये सिलसिला हो जाता है। और जब अर्घ्य पूरा हो चुका, तब छोटे बच्चों के लिए खाने की व्यवस्था। क्योंकि इतने देर में इन्हें लग चुकी होती है भूख, और ये रोने लगते हैं।

ये सब बातें अभी खतम भी नहीं होती कि किसी न किसी काम से अंधेरे में, खाली पैर ही घर आना पड़ता है। खाली पैर इसलिए क्योंकि आप लेकर आए हैं दउरा, और दउरा लाने के लिए ना पैरों में चप्पल, और न ही कमर में belt चाहिए होती है। अगर गलती से भी आपने छठ के लिए कोई नई jeans खरीदी और वो आपके कमर में ढीली है, तो एक हाथ से दउरा और दूसरे हाथ से pant की जेब में रखकर पेंट को नीचे सरकने से रोके रहना कितना मुश्किल होता है, ये हम जानते हैं। सड़क अगर बनी हुई न हो, तो कंकड़ वाले रास्तों पर नंगे पैर चलना।

पर ये चीजें मायने नहीं रखती। आपके माथे पर रखा हुआ दउरा का बोझ आपके बोझिल मन से ज्यादा भारी कभी नहीं हो सकता। आपके हृदय में घर में छठ ना होने की खलल से ज्यादा रास्ते के कंकड़ कभी नहीं चुभ सकते। आप अपनी पैंट को हाथ से नहीं तो धागा बांध कर के भी संभाल सकते हैं, पर जब घर में छठ नहीं हो रहा हो तो बाकी लोगों को छठ करते देख आप खुद को संभाल नहीं सकते।

मैं शायद घर चला जाऊंगा। मैं शायद कान में Headphone लगा कर कोई Jazz Song या कोई Rap सुनना चाहूंगा, या कुछ ऐसा जो मुझे समझ न आए। पर आप आइए। ना सिर्फ घूमने के लिए और उन चीजों को सचमुच देखने के लिए, जो आपको लगता होगा कि मैं यूं ही कहता हूं छठ की भव्यता के बारे में, बल्कि इसलिए भी कि आप मुझसे मिले, और मुझे दिखाएं छठ की सुंदरता, भव्यता, लोक आस्था का सागर, और छठ महापर्व की महिमा। आप मुझसे कहिए कि मैं सही था, बालबाँध सूर्य मंदिर धाम पर छठ की भव्यता, सुंदरता, तैयारियां, जनसमूह, श्रद्धा, भक्ति, आस्था, विश्वास, एकजुटता, सहयोग भावना, समर्पण भावना, सूर्य मंदिर की खूबसूरती और प्रकृति के साथ इसके अद्भुत लगाव और स्थिति के बारे में।

आप आइए और मुझे घर जाने से रोकिए। आप आइए और कहिए मुझसे कि मेरे जैसा केवल मैं नहीं हूं। घाट पर पहुंचे हुए लोगों में भी ऐसे लोग बहुत मिल जायेंगे, जिनके यहां छठ नहीं हो रहा है, लेकिन वो इस बात से आहत नहीं है, बल्कि खुद को समझा लिए हैं, और अब इस भक्ति सागर में डुबकी लगाकर आनंदित हो रहे हैं। किसी को याद नहीं है कि उसके यहां छठ नहीं हो रहा है।

आप मुझे समझाइए कि वो जो मेरे घाट वाली जगह पर अपना घाट बना कर बैठे हैं, उन्हें आज वो Comfort मिल रहा है, जो तुम किसी के साथ बांटते नहीं थे। और देखो, वो परिवार खुश है। और ये वो परिवार है, जो बालबाँध का है भी नहीं। देखो, पोखरा के पानी में परावर्तित होकर दिखने वाला सूर्य मंदिर और भी ज्यादा खूबसूरत लग रहा है। देखो, मंदिर की सजावट इसकी भव्यता पर चार चांद लगा रही है, और इसे करनौल से भी आसानी से देखा जा सकता है। देखो तो रौशनी कितनी दूर तक फैली हुई है। देखो तो, रात हो चली है, और दीए की रौशनी कितनी आकर्षक लग रही है। देखो तो, वो छोटे छोटे बच्चे पटाखे छोड़ रहे हैं। चलो, उन्हें रोकते हैं या फिर निर्देश देते हैं कि पटाखे खुले मैदान में छोड़े। आसपास धान की अच्छी फसल लगी हुई है, जरा देखो तो, और ये Phone बंद करो पहले।

क्योंकि आंखों के सामने की Physical दुनिया इस Digital दुनिया से कहीं ज्यादा खूबसूरत है।
आइए और कहिए मुझसे कि छठ जीवन में एक ही बार नहीं आता।

और अगर आप आयेंगे, तो मुझे अच्छा लगेगा। नहीं तो फिर इस साल छठ में मैं घर तो चला ही जाऊंगा


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